गंगा महज एक नदी नहीं है। यह आस्था और संस्कृति का प्रतीक है। यहीं वजह है कि अनादि काल से गंगा का महत्व बना हुआ है। इस धरा पर जिस दिन गंगा का अवतरण हुआ था, उसे गंगा दशमी के रूप में मनाते है। आज इस पोस्ट में गंगा भक्त एक महाराजा के बारे में आपको जानकारी देने जा रहा है।
दरअसल, महाराजा सवाई माधोसिंह सनातनी परम्परा के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने अपनी इस विदेश यात्रा की खास तैयारियां करवाई। उन्होंने ट्रैवल एजेंसी थॉमस कुक से करीब 1.5 लाख रुपए में पानी का नया जहाज 'एसएस ओलिम्पिया' किराये पर लिया। यात्रा से पूर्व इस जहाज को गंगाजल से धोकर शुद्ध किया गया। वह राधा गोपाल जी के भी भक्त थे इसलिए, जहाज के एक कक्ष में उनकी प्रतिमाएं स्थापित की गई। मुंबई तक का सफल ट्रेन से पूरा किया और उसके बाद वहां ओलम्पिया से वे इंग्लैंड पहुंचे। यह सफर करीब पांच हजार मील का रहा। उनके साथ 132 नौकर, हिंदू पुजारियों का एक दल और 600 से लगेज था।
इस सफर में वे अपने साथ चांदी के दो विशाल कलश लेकर गए। प्रत्येक कलश 1.5 मीटर लंबा और 4.5 मीटर की परिधि का था और प्रत्येक में करीब 4,000 लीटर पानी भरा जा सकता था। ये कलश करीब 14 हजार चांदी के सिक्कों को पिघलाकर बनवाएं गए थे। ये कलश आज भी जयपुर के सिटी पैलेस में सुरक्षित है और ट्यूरिस्ट इन्हें देखकर आश्चर्य करते है। इस तरह वे करीब 8 हजार लीटर गंगाजल अपने साथ लेकर गए थे।
गंगादशमी विशेष: गंगा जी की आरती, कथा और महत्व
इंग्लैंड प्रवास के दौरान अंग्रेजों से हाथ मिलाने के बाद राजा अपने साथ जयपुर से ले जायी गई मिट्टी से मलते और गंगाजल से हाथ धोकर वह स्वयं को पवित्र मानते थे। जानकारी के अनुसार, इंग्लैंड में जहाज से उतरकर जिस विशाल बंगले में वह ठहरे वहां तक राधा-गोपाल को ले जाने के लिए जुलूस निकाला जिसे देखकर हैरत से भरे अंग्रेजों की भीड़ इकट्टी हो गई। यह ऐतिहासिक घटना 3 जून 1902 की थी और संभवत: वहां किसी हिंदू देवी-देवता का इस तरह पहली बार सार्वजनिक जुलूस निकाला गया।
गंगा-गोपाल जी का मंदिर
इंग्लैंड यात्रा के बाद महाराजा माधोसिंह ने गंगाजी और गोपाल जी का मंदिर बनवाया। यह मंदिर जयपुर के प्रसिद्ध गोविन्द देवजी मंदिर के पास स्थित है। मंदिर का निर्माण 1914 में शुरू हुआ और 1922 में बनकर तैयार हुए। गंगाजी के मंदिर की मूर्ति स्थापना महाराजा की रानी जादूणजी ने करवाई और मंदिर की सेवा पूजा भी जनाना ड्योढ़ी की महिलाएं ही करती थी।
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